मंगलवार, 8 अगस्त 2017

व्योमवार्ता / संवेदनहीन समाज के लिये शर्मिंदा हूँ मै : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 08अगस्त 2017, मंगलवार

संवेदनहीन समाज के लिये शर्मिंदा हूँ मै : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 08अगस्त 2017, मंगलवार

               आज सुबह अखबार  मे एक खबर पढ़ी,  तब से खींझ आ रही है कभी खुद पर, कभी समाज पर,  कभी आज के इस भौतिकवादी वातावरण पर. दु:ख इस बात का है कि मै इस पूरे प्रकरण पर दुखी हो कर खीझने के अलावा कुछ कर भी नही सकता हूँ सिवाय इसके कि मै भी अखबार  पढ़ना छोड़  दूँ,  मेरे पड़ोसी इंजीनियर चाचाजी प्राय: मुझसे कहते है " वकील साहब,  सुबह सुबह अखबार  पढ़ने के बजाय मेरे साथ ब्रह्मकुमारी आश्रम  चल कर पुरूषार्थ  किया किजीये,  अखबार  पढ़ने से नकारात्मकता आती है", पर मै सोचता हूँ कि यह तो तूफान आने पर शुतुरमुर्ग  की तरह रेत मे सिर गाड़ कर तूफान के अस्तित्व  को भूलाने की बातें होगी,  क्योंकि हम इस समाज का हिस्सा है और समाज के अच्छे बुरे के लिये हमारी भी जिम्मेदारियॉ है, पर  एलपीजी लिबराईजेशन, प्राईवेटाईजेशन, ग्लोबनाईजेशन (उदारीकरण, निजीकरण व वैश्विकरण) के सरकारी नीति के चलते जल्दी से जल्दी पैसा कमाने और सारे सुखसुविधाओ को भोगने के प्रवृत्ति ने पिछले ढाई  दशक से  हमारे भारतीय जीवन पद्धति का ताना बाना ही छिन्न भिन्न कर दिया है, पैसों व सुखसुविधाओं से बने इस नव प्रगाढ़  रिश्ते ने खून के रिश्तों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. मै सोचता हूँ कि रिश्तो को सौदे के तराजू पर नफा नुकसान देख कर तौलने वाली इस भौतिकवादी  पीढ़ी के आने वाले समय व आने वाली पीढ़ी के बारे मे सोचते ही अंधकूप सा घना तिमिर दिखता है जहॉ दूर दूर तक सूरज के किरणों की कोई ऊम्मीद नही.
                 आज की खबर मुझे अभी तक  विचलित कर रही है, क्योंकि मेरे लिये यह सिर्फ  एक  बुज़ुर्ग की नहीं, पूरे समाज की मौत है! मुम्बई से जुड़ी एक ख़बर आज शायद आप ने भी पढ़ा होगा,  टीवी चैनल्स पर भी उससे जुड़ी एक-आध रिपोर्ट भी देखा होगा.  एक युवा डेढ़ साल बाद जब अमेरिका से घर लौटा तो देखा कि उसका फ्लैट अंदर से बंद है। उसकी मां उस घर में अकेली रह रहीं थी। जब बार-बार घंटी बजाने पर भी दरवाज़ा नहीं खोला, तो दरवाज़ा तोड़कर वो अंदर घुसा। उसने देखा कि फ्लैट के अंदर उसकी मां की जगह उसका कंकाल पड़ा है। पिता की मौत चार साल पहले ही हो चुकी थी।
           आख़िरी बार डेढ़ साल पहले उसने मां से बात की तो उन्होंने कहा था कि वो अकेले नहीं रह सकतीं। वो बहुत डिप्रेशन में है। वो वृद्धाश्रम चली जाएगी। बावजूद इसके बेटे पर इसका कोई असर नहीं हुआ। अप्रेल 2016 में फोन पर हुई उस आख़िरी बातचीत के बाद लड़के की कभी मां से बात नहीं हुई। तकरीबन डेढ़ साल बाद जब आज वो घर आया तो उसे मां की जगह उसका कंकाल मिला। पुलिस पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही है और तभी वो बता पाएगी कि महिला ने आत्महत्या की या उसकी हत्या हुई। मैंने इस ख़बर को एक नहीं, कई बार पढ़ा और बहुत सी ऐसी बातें हैं जो मेरे दिमाग में कौंध रही हैं।
              महिला ने जब डेढ़ साल पहले अपने बेटे को फोन पर कहा होगा कि बेटे मैं बहुत अकेली हूं। ये अकेलापन मुझे खाए जा रहा है। मेरा दम घुट रहा है और बेटे ने यहां-वहां की कुछ बात कर फोन रख दिया उसके बाद क्या हुआ होगा?
          बेटे ने अगली बार मां को कॉल किया होगा। मां ने फोन नहीं उठाया, तो क्या बेटे को फिक्र नहीं हुई? क्या उसके मन में ये ख़्याल नहीं आया कि मां आख़िरी बात इतनी दुखी लग रही थी। अकेली भी है, उसे कुछ हो तो नहीं गया?
               एक बार ऐसा नहीं लगा, मगर दो दिन बाद फिर फोन किया, तब भी उन्होंने नहीं उठाया या फोन नहीं लगा, उसके बाद भी वो इत्मीनान से कैसे रहा?  क्या मुम्बई शहर में जिसका कि वो रहने वाला था, उसका एक भी ऐसा रिश्तेदार-दोस्त नहीं था जिसे वो कह सके कि पता करो क्या हुआ...मां से बात नहीं हो रही।
            इस महानगरीय रिहाईस मे उस सोसाइटी में जहां वो महिला इतने सालों से रह रही थी, वहां भी किसी ने डेढ़ साल तक उसके गायब होने को नोट नहीं किया। बेटे और सोसाइटी के अलावा पूरे शहर मे, पूरी रिश्तेदारी में एक भी ऐसा इंसान नहीं था जिसने उस महिला से सम्पर्क करने की कोशिश की हो और बात न होने पर वो घबराया हो।
                मैंने सुना है कि उत्तराखंड में कुछ साल पहले चारधाम यात्रा के दौरान आई बाढ़ में मारे गए लोगों के परिजन आज भी उन पहाड़ियों में अपने परिजनों के अवशेष ढूंढते हैं। उन्हें पता है कि वो ज़िंदा नहीं है। बस इस उम्मीद में वहां भटकते हैं कि शायद उनसे जुड़ी कोई निशानी मिल जाए। उनका कोई अवेशष मिल जाए और वो कायदे से उनका संस्कार कर पाएं। सिर्फ इसलिए ताकि वो अवशेष भी यूं ही कहीं लावारिस न पड़े रहें। इतने सालों बाद भी बहुत से ऐसे लोग सिर्फ इस उम्मीद में वहां भटक रहे हैं।
           मगर यहां एक बुज़ुर्ग औरत अपने घर में डेढ़ साल पहले मर गई। उसे किसी को ढूंढना भी नहीं था। वो उसी पते पर थी जहां उसे होना थी मगर फिर भी डेढ़ साल तक उसके मरने का किसी को पता नहीं लगा। उसे किसी ने ढूंढा नहीं। बगल में रहने वाले पड़ोसियों तक ने नहीं। जिन्हें वो दिन में एक-आध बार दिख भी जाती होंगी। दरवाज़ा बंद देखकर किसी ने सोचा भी नहीं कि क्या हुआ...वो महिला कहां गईं!
          यह वही मुंबई है जहॉ आज से ठीक 75 साल पहले अगस्तक्रॉति का जयघोष  हुआ था जब देश की आजादी के लिये बिना एक दूसरे को जाने हजारो हजार लोग देश के आजादी व ऐका के नाम पर एक दूसरे को बचाने के लिये हाथों मे हाथ थामे खड़े थे,  उसी मुंबई  मे एक आलीशान  सोसाईटी के एक फ्लैट  मे डेढ़ साल से एक बूढ़ी मरी पड़ कर कंकाल बन गई और पड़ोसी तक को खबर नही, या पड़ोसी ने खबर लेने की जरूरत ही नही समझी. महज 75 सालों मे आदमियत के रिश्ते मे कितना फर्क पैदा कर दिया है हमने?
              ये अहसास कि दुनिया में मेरा कोई नहीं है। किसी को मेरी ज़रूरत नहीं है। मैं कुछ भी होने की वजह नहीं हूं। इससे बड़ी बदनसीबी किसी भी इंसान के लिए और कुछ भी नहीं। और यहां तो बात एक मां की थी। वो मां जिसे गर्भावस्था में अगर डॉक्टर ये भी बता दे कि आप उस पॉजिशन में मत सोइएगा, वरना बच्चे को तकलीफ होगी, तो वो सारी रात करवट नहीं बदलती। मां बन जाने पर जिसके लिए बच्चे का अच्छे से रोटी खाना दुनिया की सबसे बड़ी खुशी होता है।
          अब्बास ताबिश एक मशहूर शेर है, एक मुद्दत से मेरी माँ नहीं सोई 'ताबिश' मैनें इक बार कहा था मुझे डर लगता है और एक मां ने जब कहा कि उसे डर लग रहा है, वो अकेले नहीं रह सकती, तो वो बेटा डेढ़ साल तक इतनी रातें सो कैसे गया। वो समाज, वो रिश्तेदार, वो सोसाइटी वाले...वो सब कैसे अपनी-अपनी ज़िंदगियों में इतने व्यस्त थे कि साल तक एक महिला का गायब होना ही नहीं जान पाए। फ्लैट में कंकाल ज़रूर बुज़ुर्ग औरत का मिला है मगर मौत शायद पूरे समाज की हुई है। और इसी समाज का हिस्सा होने पर मैं भी शर्मिंदा हूं।
(बनारस, 08अगस्त 2017,मंगलवार)
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